पीलिया रोग के कारण और निवारण । पीलिया बीमारी के क्या लक्षण होते हैं?


दो शब्द



जीवन में सफाई का अत्यन्त महत्त्व है। यह सामग्री पढ़कर आप अपने जीवन को निरोगी रख सकते हैं। बस जरा-सी सावधानी बरतिए और रोगों से छुटकारा पाइए।




पीलिया रोग


पीलिया रोग एक प्रकार के जीवाणु द्वारा होता है एवं यह जीवाणु जिगर एवं रक्त के लाल कणों को प्रभावित करता है जिसके कारण मानव शरीर में लाल रक्त कोशिकाओं के निश्चित समय के बाद अधिक विखण्डित होने से बनने वाला रंजक जिसे बिलीरूबिन कहते है जिसका रंग पीला होता है। इस प्रकार जब यकृत से निकलने वाली पित्त वाहिनी मार्ग में रुकावट होने या यकृत और पित्ताशय में से निकलने वाली पित्त वाहिनी के मिलने के स्थान पर अवरोध होने से तथा पित्त आंत्र में जाने के बजाय रक्त में मिल जाता है तो पीलिया रोग प्रकट होता है। उससे शरीर का अंग



भी पीला दिखता है और सामान्य जन इसे पीलिया रोग कहते हैं।


इस प्रकार वाईरल हैपेटाइटिस या जोन्डिस को ही पीलिया रोग कहते है। शुरु में जब रोग धीमी गति से व मामूली होता है तब इसके लक्षण दिखाई नहीं देते हैं, परन्तु जब उग्र रूप धारण कर लेता है तो रोगी की आंखे व नाखून पीले दिखाई देने लगते है, शरीर की त्वचा भी पीली हो जाती है, पेशाब का रंग भी एकदम पीला हो जाता है। रोगी के मल का रंग सफेद हो जाता है। कुछ अन्य रोगों जैसे पित्ताशय में पथरी व सूजन मलेरिया,


नवजात शिशु में यकृत शोध, जींगरकैंसर इत्यादि में भी यह पीलिया रोग हो जाता है। जिस जीवाणु से यह रोग होता है। उसके आधार पर भी पीलिया रोग का प्रकार निर्धारित होता है।.

        हैपेटाइटिस ए, हैपेटाइटिस बी, हैपेटाइटिस सी डीई आदि। यकृत की इन बीमारियों को अवधि के अनुसार अल्पावधि (एक्यूट) एवं दीर्घावधि (क्रॉनिक) हेपेटाइटिस में विभाजित करते है। एक्यूट हेपेटाइटिस मुख्यतः वायरस के कारण होता है।

                  यह रोग ज्यादातर ऐसे स्थान पर रहने वाले व्यक्तियों


को होता है जो लोग व्यक्तिगत व वातावरणीय सफाई एवं स्वच्छता पर ध्यान नहीं देते है या कम ध्यान देते हैं। पौलिया रोग का वायरस कमोबेस हर समुदाय में हर मौसम में स्थानिक रूप से मौजूद रहता है, जो पीलिया रोग से ग्रसित व्यक्ति से निरोग मनुष्य के शरीर में प्रत्यक्ष रूप से अंगुलियों से और अप्रत्यक्ष रूप से रोगी के मल से या मक्खियों द्वारा पहुंच जाते है, इससे स्वस्थ मनुष्य भी रोग ग्रस्त हो जाता है।

                       ऐसा भी हो सकता है कि कुछ रोगियों की आंखे नाखून या शरीर आदि पीले नहीं दिख रहे हो, परन्तु यदि वे इस रोग से ग्रसित हो तो अन्य रोगियों की तरह ही रोग को फैला सकते है।

                   हैपेटाइटिस बी, सी एवं डी रक्त व रक्त व रक्त से निर्मित पदार्थों के आदान-प्रदान से फैलता है। इससे वह व्यक्ति जोइस रोग से पीडित होता है और अपना रक्त दूसरे व्यक्ति को देता है, उसे भी रोगी बना देता है। यहां रक्त देने वाला (एड्स रोग की भांति) रोग का वाहक बन जाता है।


           इस प्रकार के वायरस दुषित रक्त इन्जेक्शनों के द्वारा ग्रहण किये गये मादक पदार्थों तथा असुरक्षित यौन संबंधों से फैलते हैं। यह बीमारी लंबे समय तक बनी रह सकती है एवं कालांतर में गंभीर रूप धारण कर सकती है। इन वायरसों का पता खून की विशेष जांचे से ही लगाया जा सकता है। शराब का अधिक सेवन करने वाले व्यक्तियों को पीलिया होने की आशंका रहती है जिसे शराब जनित पीलिया (एल्कोलिक हेपेटाइटिस) कहते है। इसमें मरीज को तेज बुखार हो जाता है ओर उसका जिगर बढ़ जाता है। इसके अतिरिक्त अनेक प्रकार की दवाइयां भी कभी-कभी जिगर को नुकसान पहुंचाकर पीलिया का कारण बन सकती है तब उन दवाओं को बंद कर चिकित्सक के परामर्श से खून की जांच करानी चाहिए।


                             क्रोनिक हेपेटाइटिस छ: माह से अधिक समय तक चलने वाले जिगर की बीमारियों को दीर्घ अवधि हेपेटाइटिस कहा जाता है और यह बीमारी बी सी डी वायरस से होती है। इस रोग के निवारण हेतु कुछ दवाइयां उपलब्ध है जिनसे 50 प्रतिशत रोगियों के ठीक होने की संभावना होती है। कालान्तर में यह रोग सिरोसिस में बदल जाता है जिसमें रोगी के पैरों में सूजन, पेट में पानी, खुन की उल्टी तथा बेहोशी जैसे खतरनाक लक्षण हो सकते है। ऐसे रोगियों की चिकित्सा विशेष दक्षता प्राप्त चिकित्सक द्वारा ही हो सकती है। फिर भी इनका पूर्ण रूप से स्वस्थ होना कठिन होता है।


     वाइरल हैपेटाइटिस ए या डी, ई में इत्यादि पौलिया तो सारे संसार में पाया जाता है। पीलिया रोग में रोग की छूत लगने के तीन से छ सतह बाद रोग के निम्न प्रकार से लक्षण प्रकट होते हैं।


रोग के प्रारंभिक लक्षण - हल्का ज्वर, घबराहट, थकान, शरीर में कमजोरी महसूस होना, सिरदर्द व शरीर दर्द, भूख न लगना, चिकनाई वाले पदार्थों से अरुचि, जी मिचलाना, कभी-कभी उल्टी होना, पेट दर्द होना, खुजली होना, गहरा पीला पेशाब आना, शरीर का रंग पीला होना (विशेषकर आंखों एवं नाखून का)

    यह रोग किसी भी आयु के व्यक्ति को हो सकता है, परंतु रोग की उग्रता रोगी के स्वास्थ्य की अवस्था पर निर्भर करती है। जैसे नवजात शिशुओं व उनकी माताओं में यह रोग बहुत उग्र होता है और जानलेवा भी हो सकता है। यदि दशा गर्भवती महिला के लिए संभावित होती है। तो उन्हें ज्यादा समय तक कष्ट देता है। स्वस्थ लोगों पर पीलिया रोग का आक्रमण साधारण ही होता है, परंतु रोग


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की गहनता के कारण यकृत (लीवर) में कठिन दोष उत्पन्न हो जाता है।

         वे व्यक्ति जो रक्ताल्पता से पीड़ित है और अधिक पित्तवर्धक (कटुरस प्रधान द्रव्य मिर्च गरम मसाला) आदि, अम्ल रस प्रधान नींबू, इमली, आंवला आदि उष्ण, तीक्ष्ण, लवण का सेवन, क्रोध, उपवास, धूप, स्त्रीप्रसंग का अधिक सेवन करते है वे भी पीलिया रोग के शिकार शीघ्र होते है। पीलिया रोगी की आंखें त्वचा और नाखून हल्दी के समान रंगवाले हो जाते है । वस्तुतः इस रोग में उपचार से अधिक



लाभदायक होता है। रोगी को भोजन की रूचि समाप्त हो जाती है। अतः ऐसा रूचिकर पदार्थ उपभोग हेतु देना चाहिए जिसमें रोगी को शक्ति तुरंत मिले। चिकनाई युक्त गरिष्ठ भोजन नुकसान पहुंचाता है। अत: यह उपभोग हेतु नहीं देवे, यह हानिकारक होता है। इस रोग को कोई विशिष्ठ उपचार नहीं है। जिसका विशेष सिद्धांत यकृत (लीवर) को आराम देना है। अतः रोगी को बिस्तर पर पूर्ण आराम देना चाहिए। शर्करा युक्त चावल, दलिया, खिचड़ी, थूली, आलू, गन्ने का रस, चीनी,



ग्लुकोज, गुड, चीकू, पपीता, छाछ, मूली देना चाहिए जबकि प्रोटीनयुक्त भोजन जेसे दाले, मांस, मछली, दूध अण्डा कम देना चाहिए।


      आयुर्वेद के अनुसार रोगी को मूत्र में पित्तरंजक (पीला रंग) द्रव्य के अदृश्य होने तथा मल में उसके दिखने तथा पूर्ण विश्राम देना चाहिए। उसके बाद रोगी को स्नेह कर तिक्त रस युक्त द्रव्यों जिनमें अमलतास, नीम, कुटकी, हल्दी, चिरायता, इन्द्रायण (गंडतुम्बा) आदि औषधियों से युक्त मृदु विरेचन देना चाहिए। मूत्र विरेचन के लिए पूनर्नवा (साठी) का काला या रस देना उत्तम है।


    रोग में परहेज गरिष्ठ एवं चिकनाई युक्त भोजन से रखने के साथ-साथ महत्वपूर्ण बात यह है कि रोगी को एवं उसके परिवार को व्यक्तिगत एवं वातावरण की स्वच्छता पर भी ध्यान देना चाहिए। रोगी के मल से पेयजल स्रोत के दूषित होने पर यह रोग माहमारी का रूप ले लेता है। इसलिए रोगी के मल का निस्तारण समुचित रूप से करना चाहिए, जिससे खाद्य पदार्थ संक्रमित नहीं होवे ।


पीलिया के प्रकोप से बचने के लिए निम्नांकित बातों का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए -


1. खाना बनाने, परोसन, खाने से पहले व बाद में, शौच जाने के बाद में हाथ अच्छी तरह साबून से धोना चाहिए। जिन बर्तनों में खाना बनाया जावे या खाया जावे वे भी पूर्ण रूप से स्वच्छ होना चाहिए।

   भोजन को जालीदार अलमारी मे या ढक्कन से ढक कर रखना चाहिए ताकि भोजन को मक्खियां व धूल के संभावित संक्रमण से बचाया जा सके। ताजा, शुद्ध व गर्म भोजन करें, दूध व पानी उबाल कर काम में ले। पीने का । पानी नल हेण्डपम्प या आदर्श कुओं का ही काम लेवें। 

2. मलमूत्र, कुड़ा-करकट सही स्थान पर गड्ढा खोदकर दबाना चाहिए या जलाना चाहिए।

3. गंदे, सड़े, गले कटे हुए फल नहीं खाए ।

4. धूल पडी या मक्खिायां बैठी मिठाई का सेवन नही करे।

5. स्वच्छ शौचालय का प्रयोग करे ।

6. रक्त चढवाने की दशा में हेपेटाइटिस मुक्त रक्त को प्रयोग होवें, यह सुनिश्चित करावें।

7. जैसे एड्स रोग से बचने के लिए सुरक्षित यौन संबंध आवश्यक है, इस रोग से बचने के हेतु भी यही आवश्यक है कि एक बार काम आने वाली सूइयों का ही प्रयोग होवें।

8. हेपेटाइटिस बी के वायरस से बचाव हेतु टीके भी उपलब्ध है। यह टीका प्रत्येक रोगी के रिश्तेदार मेडिकल स्टाफ के लगाया जाना उपयुक्त रहता है ।

9. शराब भी क्रोनिक हेपेटाइटिस एवं सिरोसिस का कारण है। अतः शराब का प्रयोग इस रोग के लक्षण में जानलेवा है।

10. मलेरिया या गंदगी युक्त पदार्थों के साथ वायरस हेपेटाइटिस ए और इ शरीर में पहुंचने, विशेषकर पीने के पानी के साथ जाने से यह बिमारी फैलती है। हमारे देश में फैलने वाली इस महामारी का कारण हेपेटाइटिस ई है। अतः स्वच्छ पेय व खान पान का विशेष ध्यान रखें ।


11. हेपेटाइटिस बी, सी एवं डी मुख्य रूप से संक्रमित सुइयों के प्रयोग दुषित रक्त एवं खटमल एवं मच्छर भी इन विभिन्न प्रकार के स्त्रावों के साथ शरीर में प्रवेश देने का कार्य करते हैं इसलिए हेपेटाइटिस बी एवं सी से मरने वालों की संख्या एड्स से मरने वालों की संख्या से अधिक रहती है ।


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